सारंगी...

बचपन के वो... भरी दुपहरी के किस्से वो चंद यादें धुंदली सी... वो अपनी.. गुजरी कहानियों के हिस्से... वो गली मं गूंजना... एक सारंगी की आवाज़ वो दौड़ पड़ना फिर... माँ के पास... मिन्नत चंद पैसो की... ले उसे खरीदने की आस वो सोचना कि.. गर... हमें ये सारंगी मिल जाये.. छेड़े सुर हम भी... उसे सबसे बेहतर बजाये... सोचा करते थे.. हाथ में आते ही बज पड़ेगी.. फन आ जायेगा खुद ही.. कोई न मशक्कत करनी पड़ेगी.. पर जब पहला तार छेड़ा.. अंदाजा हुआ तभी... काम नहीं सीधा.. हैं बेहद टेड़ा... नहीं बजती .. जैसा सोचा था... हाथो में उसके... इसका सुर ना ऐसा था... कोशिश कि बहुत तो जो आवाज़ निकली.. वो कटाई मधुर न थी... सारंगी वाले के साज के सामने कही ठहरती न थी... ख्याल आया फिर... ये साज ही ख़राब हैं.. ये शख्स हमे ही लूटने निकला आज हैं... उसका तो साज.. क्या खूब ही बजता था.. उंगलिया पड़े तारो पर क्या समां बंधता था... हमने की जिद... कि... वही साज चाहिए... अपना हमे दीजिये... और हमारा आप बजाइए उसने ख़ुशी ख़ुशी ऐसा ही किया... मगर नए साज भी उंगलियों ने कमाल न किया... न निकली कोई सुरीली तान न ही बनी कोई बात.. नतीजा फिर वही ......