कल ऐतवार हैं उफ़!!! फिर से ! कैसे कटेगा फिर से ये.. कितनी मुश्किल से कटा था पिछला वाला कितना सताया था तुमने... हफ्ते भर को तो किसी तरह से काट लेता हूँ काम तो कभी मसरूफियत का बहाना लेकर मगर छुट्टी के दिन.. कमबख्त, कोई काम भी तो नहीं होता मुझे थोडा सा फ्री देख कर तुम आ जाती हो काटे नहीं कटता फिर तो वक़्त जाने कैसे अपने पल्लू से बाँध लेती हो इसे मैं बेचैन रहता हूँ तमाम वक़्त... दोस्तों के दरमियाँ भी, बस तुम्ही साथ होती हो उनकी भी शिकायत "जनाब! इन्हें क्यों साथ ले आये " मगर तुम्हारे सामने कहा चलती है मेरी... कहाँ मानती हो तुम.. क्या करू... कि कैसे बीतेगा कल का दिन तुम फिर सताओगी मनमानी करोगी छेड़ोगी मुझे शैतानी करोगी ... और मैं कहूँगा.. कि बीत जाए ये मुआ! दिन किसी तरह फिर रात आ जाएगी... और फिर इसके साथ तुम भी चली जाओगी.. और रह जाएगा... फिर से... वही एक हफ्ता बिताने के लिए, तुम्हारे बगैर! जो तुम्हारे जाने के बाद और मुश्किल हो जाता हैं बिताना क्या करू??? कल ऐतवार हैं.... मगर सच कहू.. कनखियों से मैं भी इसके आने कि राह तकता हूँ... तो.. देखो.. तुम भूल ना जाना... कल ऐ...