बस ये जानो.. कई दिन सुन के... लहू रिसता रहा दीवारों से...
कोई तो हो जो चुन ले इनको.. मेरी पलकों के किनारों से
बुँदे उफनती तूफ़ान उठाये.. बहती अँखियों के धारो से...
कहते सुनते उम्र बीती... दुनियादारी न आई मुझे....
सब जग छोटा समझा..मैंने जब भी तौला यारो से...
खालिस बातें करने वाले सुन ले मेरी भी बात ये एक...
सिसकिय जहाँ दबती हों... वहां क्या बदलेगा कुछ नारों से...
धंधे उनके चमकते हैं.. जो खूद खून-पसीना बहाते हैं...
उनको नफा क्यूँकर हो. .. जो उम्मीद करे खिदमतगारो से...
उसने अपने माँ-बाप से कहे . क्या कहू क्या लफ्ज़ वो थे
बस ये जानो.. कई दिन सुन के... लहू रिसता रहा दीवारों से...
देशभक्ति भी आजकल बस एक चलन सी हो गयी हैं....
चार दिन तो रहती हैं... फिर गायब हैं अखबारों से....
रेस्तरां में चख कर.. पसंद नहीं कह... जो चीज छोड़ दी मैंने...
देखा ...वही झूठन पा कुछ लाचार.. इतराते अपने तारो से....
क़त्ल तो सर-ऐ-राह ही हुआ... सर-ऐ-दिन.. सर-ऐ-आम मगर...
एक चश्मदीद न मिला 'आलोक' फिर भी.. उम्मीद तो थी हज़ारों से...
...आलोक मेहता....
बुँदे उफनती तूफ़ान उठाये.. बहती अँखियों के धारो से...
कहते सुनते उम्र बीती... दुनियादारी न आई मुझे....
सब जग छोटा समझा..मैंने जब भी तौला यारो से...
खालिस बातें करने वाले सुन ले मेरी भी बात ये एक...
सिसकिय जहाँ दबती हों... वहां क्या बदलेगा कुछ नारों से...
धंधे उनके चमकते हैं.. जो खूद खून-पसीना बहाते हैं...
उनको नफा क्यूँकर हो. .. जो उम्मीद करे खिदमतगारो से...
उसने अपने माँ-बाप से कहे . क्या कहू क्या लफ्ज़ वो थे
बस ये जानो.. कई दिन सुन के... लहू रिसता रहा दीवारों से...
देशभक्ति भी आजकल बस एक चलन सी हो गयी हैं....
चार दिन तो रहती हैं... फिर गायब हैं अखबारों से....
रेस्तरां में चख कर.. पसंद नहीं कह... जो चीज छोड़ दी मैंने...
देखा ...वही झूठन पा कुछ लाचार.. इतराते अपने तारो से....
क़त्ल तो सर-ऐ-राह ही हुआ... सर-ऐ-दिन.. सर-ऐ-आम मगर...
एक चश्मदीद न मिला 'आलोक' फिर भी.. उम्मीद तो थी हज़ारों से...
...आलोक मेहता....
Sacchai se saamna karwa diya aapne,Alok ji..
जवाब देंहटाएंmaksad yahi tha stuti ji.. baat ap tak pahuchi.. aabhaar sweekar kare...
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