कुछ और.. कुछ और... तन्हा हुए जाता हूँ....
मैं तन्हा नहीं हूँ...
कई लोग हैं साथ मेरे...
दायरा भी बहुत बड़ा हैं
मिलने जुलने का..
दोस्त कह सकू
कम नहीं हैं ऐसे शख्स भी...
फुर्सत के लम्हे भी
कुछ खास नहीं मिलते
कि तन्हाई का एहसास हो सके
मगर फिर भी
एक खलिश
एक इन्तजार सा क्यों
रहता हैं
क्यों इन दोस्तों की भीड़ में
कोई ऐसा नहीं मिलता
जिससे मैं खुद को बाँट सकू
क्यों निगाहे हर वक़्त
एक शख्स को ढूँढती हैं
क्यों अक्सर यूँ ही
बेवजह आंख भर आती हैं...
क्यूँ एक पल को ही सही
याद किसी की आती हैं
क्यू दिल की बातें...
लोगो से कहते हिचकिचाता हूँ
क्यू अपनी रूह को
खुद से भी छुपाता हूँ...
क्यूँ एहसास अपने...
परत दर परत... इकट्ठे
करता हूँ...
क्यू एहसासों कि गठरी...
दिल पे यूँ धरता हूँ...
आखिर किस के लिए यूँ
खुद को सहेजा हैं...
किस का हैं इन्तजार...
किस के आने का अंदेशा हैं...
इन सवालो के भंवर
में क्यूँ डूबता जाता हूँ...
उतना ही उलझता हूँ
जितना उलझन सुलझाता हूँ...
पैगाम कि आस में
जिसकी निगाहें ये बिछी हैं..
कौन हैं आखिर....
किसकी राह देखे जाता हूँ....
कहने को तो तन्हा नहीं हूँ
मैं...
फिर क्यू आखिर...