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बात चुभती हो कोई... तो चलो बात करे...

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अब आज अभी से इक नयी शुरुआत करे.... बात चुभती हो कोई... तो चलो बात करे... दूर तक चलना शिकवो का भी ठीक नहीं... मिटा दे चलो इन्हें... ख़त्म मामलात करे... था करार सदियों का ...लम्हों भी चला न वो... जवाब मांगे भी तो क्या... क्या सवालात करे... क्या रहेंगे गिले.. जो रूबरू हो पाए हम.... "आलोक" मुझसे गर कहे ... जो औरो से तू बात करे.... आलोक मेहता...

क्या हैं कि झूठ में अपना कोई स्वाद नहीं होता...

सच के साथ रखना जरा झूठ का भी हिस्सा... खालिस सच किसी से अब बर्दाश्त नहीं होता.... जब भी गुजरा हूँ मैं तेरी यादो से होकर.... ख्याल यही आया..ये गुजरना काश नहीं होता.... चाशनी लहजे की अब जुबाँ में बसा सब रखते हैं.... क्या हैं कि झूठ में अपना कोई स्वाद नहीं होता.... आलोक मेहता...

बस ये जानो.. कई दिन सुन के... लहू रिसता रहा दीवारों से...

कोई तो हो जो चुन ले इनको.. मेरी पलकों के किनारों से बुँदे उफनती तूफ़ान उठाये.. बहती अँखियों के धारो से... कहते सुनते उम्र बीती... दुनियादारी न आई मुझे.... सब जग छोटा समझा..मैंने जब भी तौला यारो से... खालिस बातें करने वाले सुन ले मेरी भी बात ये एक... सिसकिय जहाँ दबती हों... वहां क्या बदलेगा कुछ नारों से... धंधे उनके चमकते हैं.. जो खूद खून-पसीना बहाते हैं... उनको नफा क्यूँकर हो. .. जो उम्मीद करे खिदमतगारो से... उसने अपने माँ-बाप से कहे . क्या कहू क्या लफ्ज़ वो थे बस ये जानो.. कई दिन सुन के... लहू रिसता रहा दीवारों से... देशभक्ति भी आजकल बस एक चलन सी हो गयी हैं.... चार दिन तो रहती हैं... फिर गायब हैं अखबारों से.... रेस्तरां में चख कर.. पसंद नहीं कह... जो चीज छोड़ दी मैंने... देखा ...वही झूठन पा कुछ लाचार.. इतराते अपने तारो से.... क़त्ल तो सर-ऐ-राह ही हुआ... सर-ऐ-दिन.. सर-ऐ-आम मगर... एक चश्मदीद न मिला 'आलोक' फिर भी.. उम्मीद तो थी हज़ारों से... ...आलोक मेहता....

We regret that we should have

The irony of life.... We regret that we should have...after losing the time we could have.... aalok mehta....