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कुछ और.. कुछ और... तन्हा हुए जाता हूँ....

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मैं तन्हा नहीं हूँ... कई लोग हैं साथ मेरे... दायरा भी बहुत बड़ा हैं मिलने जुलने का.. दोस्त कह सकू कम नहीं हैं ऐसे शख्स भी... फुर्सत के लम्हे भी कुछ खास नहीं मिलते कि तन्हाई का एहसास हो सके मगर फिर भी एक खलिश एक इन्तजार सा क्यों रहता हैं क्यों इन दोस्तों की भीड़ में कोई ऐसा नहीं मिलता जिससे मैं खुद को बाँट सकू क्यों निगाहे हर वक़्त एक शख्स को ढूँढती हैं क्यों अक्सर यूँ ही बेवजह आंख भर आती हैं... क्यूँ एक पल को ही सही याद किसी की आती हैं क्यू दिल की बातें... लोगो से कहते हिचकिचाता हूँ क्यू अपनी रूह को खुद से भी छुपाता हूँ... क्यूँ एहसास अपने... परत दर परत... इकट्ठे करता हूँ... क्यू एहसासों कि गठरी... दिल पे यूँ धरता हूँ... आखिर किस के लिए यूँ खुद को सहेजा हैं... किस का हैं इन्तजार... किस के आने का अंदेशा हैं... इन सवालो के भंवर में क्यूँ डूबता जाता हूँ... उतना ही उलझता हूँ जितना उलझन सुलझाता हूँ... पैगाम कि आस में जिसकी निगाहें ये बिछी हैं.. कौन हैं आखिर.... किसकी राह देखे जाता हूँ.... कहने को तो तन्हा नहीं हूँ मैं... फिर क्यू आखिर

मगर शायद तजुर्बा जरुरी था ये.. उल्फत समझने को...

कोई मतलब न था अपने मिलने.. फिर बिछड़ने का... मगर शायद तजुर्बा जरुरी था ये.. उल्फत समझने को... ..आलोक मेहता...

कि फ़कत नाम जानने को ही तो... तेरा नाम न पूछा था

जो की हैं तुझसे.. यूँ ही ये पहचान तो न मिट जायेगी... कि फ़कत नाम जानने को ही तो... तेरा नाम न पूछा था... आलोक मेहता...

तो... दरमियान फासला न इतना ज्यादा होता...

क्या चाहता हूँ तुझसे.. गर... ज़रा भी मुझे अंदाजा होता... तो सच कहता हूँ... दरमियान फासला न इतना ज्यादा होता... आलोक मेहता...

जिस्म साथ हो तो.. दरमियान फासले नहीं होते...?

बज़ा फरमाया तूने की.. हम अब भी एक घर में साथ रहते हैं... मगर ये किसने कहा.. कि, जिस्म साथ हो तो.. दरमियान फासले नहीं होते... आलोक मेहता...

अभी..उल्फत की शुरुआत हैं...

वो मुझसे, मैं उससे ... हर मुलाक़ात पे उलझ जाता हूँ... वो हुस्न हैं.. मैं इश्क हु... और अभी..उल्फत की शुरुआत हैं... आलोक मेहता... wo mujhse main us'se har mulakaat par ulajh jaata hu.... wo husn hain main ishq hu.. aur abhi ulfat ki shuruaat hain... aalok mehta...

मुझे उसे ये बतलाना अच्छा लगता हैं....

यूँ तो उसे भी हैं मालुम.. उससे कितना प्यार हैं मुझे.. लेकिन... मुझे बारहा जताना अच्छा लगता हैं... वो इतराती हैं.. इठलाती हैं.. और फिर उसका शर्माना अच्छा लगता हैं.... कह ही दिया जाए ये कोई जरुरी तो नहीं हैं... मगर कितनी हैं खास.. मुझे उसे ये बतलाना अच्छा लगता हैं.... आलोक मेहता..

नहीं कहता कि न घबराऊंगा...

नहीं कहता कि न घबराऊंगा... हाँ कहता.. कि फिर भी डट जाऊंगा अंतिम क्षण तक पग न डिगेंगे... जुझुंगा.. कर संभव.. असंभव जाऊंगा... ..आलोक मेहता...