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न निभा सकेंगे हम.. गर तुझे शुबा रहा...

गर तुझे शुबा रहा.... क्या निभा सकेंगे हम न निभा सकेंगे हम.. गर तुझे शुबा रहा... ...आलोक मेहता...

जुदा हो जाये मुझसे.. तो मैं मिल जाऊ उसको...

मैं मिल जाऊ उसको.. जुदा हो जाये मुझसे... जुदा हो जाये मुझसे.. तो मैं मिल जाऊ उसको... ..आलोक मेहता...

सयाना हुआ दिल कि अब... दुनियां-जहान देखे हैं...

बदलता वक़्त.. बदलते मौसम... और इंसान देखे हैं... सयाना हुआ दिल कि अब... दुनियां-जहान देखे हैं... चार दिवारी एक छत वाले घर की ख्वाहिश थी... और तो क्या देखा हमने.. ऊँचे मकान देखे हैं... गरीबो की बस्ती में फिर भी गरीबी का जश्न मिला... अमीरों के यहाँ तो अक्सर .. आलम वीरान देखे हैं.. मेरे चालो-चलन पे ऊँगली उठाये जो फिरते हैं... हमने उन कमजर्फो के मैले गिरेबान देखे हैं.. छुप छुपा के दुनिया से वो जुर्म किया करते हैं... और कोई चाहे न देखे वो आसमान देखे हैं.... इस तरह मेल हुआ कातिल और मुंसिफ में... खूनी दीखता नहीं..सबूत-ओ -निशान देखे हैं... लोक तंत्र का अब हर कोई मखौल बनाये हैं... पंचो का फरमान हुआ.. कानून हैरान देखे हैं... खेलो में glamouR को अब स्कर्ट जरुरी होगी किस तरह बना दी गयी नारी इक सामान देखे हैं... मेरी बारी चुप रहा, लगा उसे कोई मतलब नहीं..... अब जब खुद पे पड़ी तो भी बस बेजुबान देखे हैं... वो आज भी खाली बर्तन टटोल के सो जायेगी जिसने अमीरों की महफ़िल में फेके पकवान देखे हैं... "आलोक" अब क्या कहे क्या क्या इस जहान देखे हैं.. शैतानो का डर दिखा इंसान अब लूटे इंसान देख

कल ऐतवार हैं.... उफ़!!! फिर से !

कल ऐतवार हैं उफ़!!! फिर से ! कैसे कटेगा फिर से ये.. कितनी मुश्किल से कटा था पिछला वाला कितना सताया था तुमने... हफ्ते भर को तो किसी तरह से काट लेता हूँ काम तो कभी मसरूफियत का बहाना लेकर मगर छुट्टी के दिन.. कमबख्त, कोई काम भी तो नहीं होता मुझे थोडा सा फ्री देख कर तुम आ जाती हो काटे नहीं कटता फिर तो वक़्त जाने कैसे अपने पल्लू से बाँध लेती हो इसे मैं बेचैन रहता हूँ तमाम वक़्त... दोस्तों के दरमियाँ भी, बस तुम्ही साथ होती हो उनकी भी शिकायत "जनाब! इन्हें क्यों साथ ले आये " मगर तुम्हारे सामने कहा चलती है मेरी... कहाँ मानती हो तुम.. क्या करू... कि कैसे बीतेगा कल का दिन तुम फिर सताओगी मनमानी करोगी छेड़ोगी मुझे शैतानी करोगी ... और मैं कहूँगा.. कि बीत जाए ये मुआ! दिन किसी तरह फिर रात आ जाएगी... और फिर इसके साथ तुम भी चली जाओगी.. और रह जाएगा... फिर से... वही एक हफ्ता बिताने के लिए, तुम्हारे बगैर! जो तुम्हारे जाने के बाद और मुश्किल हो जाता हैं बिताना क्या करू??? कल ऐतवार हैं.... मगर सच कहू.. कनखियों से मैं भी इसके आने कि राह तकता हूँ... तो.. देखो.. तुम भूल ना जाना... कल ऐ

और मैं जीता रहा

जाम दर जाम मुश्किलें चाव से पीता रहा कश लगाये हौसलों के और मैं जीता रहा प्याला मेरी प्यास का... न भरा कभी ... बूंद बूंद तरसा किया.. और मैं जीता रहा... उनसा सर न झुकाया.. तो कहा, "मरूँगा मैं"... मगर वो मरते गए...और मैं जीता रहा.... बढ़ा.. तो गिरा.. फिर संभला फिर बढ़ पड़ा ... इस तरह मंजिले मिली.. और मैं जीता रहा बारेमुश्किले जो कभी नामुमकिन ये सफ़र लगा कदम कदम बढ़ता रहा .. और मैं जीता रहा.... साँसे धडकनों नब्जो को वो जिंदगी कह लेते हैं... मैं जीने की खातिर मरा... और मैं जीता रहा... हालात कभी.. तो.. कभी खुद को ही बदल लिया.... "आलोक " झुका कभी.. तना कभी... और मैं जीता रहा... ...आलोक mehta ...

कुछ बातें

कुछ बातें करनी थी यारो आपसे... मगर वो अक्सर होता हैं न कि जब बहुत कुछ कहना हो तो अक्सर कुछ भी नहीं कह पाते.. बस आज मेरी हालत कुछ ऐसी hi हैं... वजह? ये पता होता तो कम से कम यही बात करने का मसला होता.. मगर आज तो कुछ अजब hi ख़ामोशी छाई हैं... dil, जेहन हर सूं ... कही भी कुछ भी कहने को नहीं. बताने को नहीं... आपके साथ भी तो अक्सर ऐसा होता होगा न... होता हैं या नहीं... भई मेरे साथ तो ये कोई नयी बात नहीं... सुनने में अजीब लगता हैं न.... aap भी सोच रहे होंगे ... कि वाह जी वाह.. दावा तो हैं lekhak, shayar hone का और जब कुछ कहने का वक़्त आया तो चुप्पी लगा ली... ठीक हैं ठीक हैं... माना मेरी गलती हैं... मगर हूँ तो आखिर मैं भी इंसान hi न.. अरे दबे लबो में ये हसी कैसी... हाँ saahab इंसान hi हूँ मैं.. आपकी तरह... अब कुछ गलतिया तो मुझे भी जायज हैं.. नहीं... गर नहीं... तो गुजारिश हैं.. कि is दफा माफ़ी दे दी जाए मुझे... खैर चलिए .... आज इसी पर बात करते हैं.. ऐसा आपके साथ कितनी मर्तबा हुआ हैं कि aap कुछ कहना चाहते हैं और अचानक जुबा खुलने से इनकार कर देती हैं ऐसा लगता हैं.. कमबख्त लफ्ज़ जाने कौन से क