खैर... इतना भी, आज लिखना अच्छा लगा

एक सधी हुई रचना
हकीकत लिए कोई सपना
आज मुझे कहनी हैं

क्या चुनु विषय
और क्या छोड़ दूँ
सोच के दरिये को
किस और मोड़ दूँ

समसमायिक
मुद्दे देखू
या कल की
कोई बात कहू

बयां करू
रवानी-ऐ-इश्क
या पढू
फ़साना-ऐ-अश्क

मगर मुझमे
गाम्भीर्य नहीं
ठहराव भी नहीं,
धैर्य नहीं

लफ्जों की
समझ नहीं
जबान भी
सहज नहीं

फिर आखिर
कब, क्या,
किस तरह लिखू
किस तरह
उतारू खुद को
क्यूकर ये
तस्वीर रंचू

लाख कोशिशों
बाद भी
कहाँ कुछ लिख पाया हूँ
जज़्बात एक भी अपना
ढंग से
कहाँ कह पाया हूँ

क्या कभी था
हुनर मुझमे,
जो ख़त्म हुआ
एक बुलबुला था, पानी का
फूटा,
आँखों में नम हुआ

आज एक और बार
कोरे कागज़ से विदा लेता हूँ
ऐसा करता आज की रात
फिर ये शमा बुझा देता हूँ

आऊंगा फिर जब
जज्बातों की रवानी होगी
ख्यालो की कंगाली नहीं
पास कोई कहानी होगी

मगर क्या जरुरी हैं
की लिखने का कोई विषय,
कोई मतलब हो
वो लेखक ही क्या
जिसे किसी वजह
की तलब हो

खैर इतना भी आज
लिखना अच्छा लगा
की मैं सच में लिख पाउँगा कभी
आज फिर से ये सपना
बेहद सच्चा लगा ....


.... आलोक मेहता

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