सफ़र-ऐ-जिंदगी
क्या हासिल हैं मेरी इस जिंदगी का...
सोचता हूँ.. तो खालीपन ही पाता हूँ
टूटती साँसे.. डूबती नब्ज़.. बिखरी रूह..
ख़त्म होती कहानी का हिस्सा बना जाता हूँ .
दूर हो मेरे माझी.. मेरे दोस्त.. मेरे यार से...
एक गुमनाम जिंदगी मैं जिए जाता हूँ...
इतनी तनहा हो रही हैं ये जिंदगी बसर..
अपना साया भी जो देखू.. सिहर जाता हूँ..
कोई हैं या नहीं इस जहाँ मेरी खातिर..
जवाब देते इस सवाल का मैं घबराता हूँ...
नाकाम न हो जाऊ रिश्तो की कसौटी पर...
सोच नए रिश्ते बनाते मैं कतराता हूँ..
खुद पर भी नहीं यकीं अब मुझको...
खुद से भी अब तो.. मैं, नजरे चुराता हूँ...
कोई इख्तियार नहीं रहा अपनी हस्ती पर...
कुछ चाहता हूँ... और कुछ.. मैं कह जाता हूँ
मेरी तन्हाई का न उड़े मखौल इस महफ़िल...
झूठे अपने यारो का मैं दम भरे जाता हूँ..
दुनिया से टकराऊं .. कहाँ कूबत बाकी..
खुद से चिढ़ता हूँ . खुद पर ही झल्लाता हूँ...
दौर गुजरा हैं उल्फत का यूँ भी मुझ पर..
नाम-ऐ-मोहब्बत लेते मैं काँप जाता हूँ...
किसी शय की तमन्ना यूँ तो नहीं मुझे...
फिर भी उसे दूर जाता देख सहम जाता हूँ
जिंदगी मेरी यार अब ये अजीब पहेली हैं..
हर रोज इसके पेच में कुछ और उलझ जाता हूँ..
...आलोक मेहता.. .
( एक पुरानी रचना थोड़ी फेर बदल के साथ)
सोचता हूँ.. तो खालीपन ही पाता हूँ
टूटती साँसे.. डूबती नब्ज़.. बिखरी रूह..
ख़त्म होती कहानी का हिस्सा बना जाता हूँ .
दूर हो मेरे माझी.. मेरे दोस्त.. मेरे यार से...
एक गुमनाम जिंदगी मैं जिए जाता हूँ...
इतनी तनहा हो रही हैं ये जिंदगी बसर..
अपना साया भी जो देखू.. सिहर जाता हूँ..
कोई हैं या नहीं इस जहाँ मेरी खातिर..
जवाब देते इस सवाल का मैं घबराता हूँ...
नाकाम न हो जाऊ रिश्तो की कसौटी पर...
सोच नए रिश्ते बनाते मैं कतराता हूँ..
खुद पर भी नहीं यकीं अब मुझको...
खुद से भी अब तो.. मैं, नजरे चुराता हूँ...
कोई इख्तियार नहीं रहा अपनी हस्ती पर...
कुछ चाहता हूँ... और कुछ.. मैं कह जाता हूँ
मेरी तन्हाई का न उड़े मखौल इस महफ़िल...
झूठे अपने यारो का मैं दम भरे जाता हूँ..
दुनिया से टकराऊं .. कहाँ कूबत बाकी..
खुद से चिढ़ता हूँ . खुद पर ही झल्लाता हूँ...
दौर गुजरा हैं उल्फत का यूँ भी मुझ पर..
नाम-ऐ-मोहब्बत लेते मैं काँप जाता हूँ...
किसी शय की तमन्ना यूँ तो नहीं मुझे...
फिर भी उसे दूर जाता देख सहम जाता हूँ
जिंदगी मेरी यार अब ये अजीब पहेली हैं..
हर रोज इसके पेच में कुछ और उलझ जाता हूँ..
...आलोक मेहता.. .
( एक पुरानी रचना थोड़ी फेर बदल के साथ)
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