और मैं जीता रहा

जाम दर जाम मुश्किलें चाव से पीता रहा
कश लगाये हौसलों के और मैं जीता रहा

प्याला मेरी प्यास का... न भरा कभी ...
बूंद बूंद तरसा किया.. और मैं जीता रहा...

उनसा सर न झुकाया.. तो कहा, "मरूँगा मैं"...
मगर वो मरते गए...और मैं जीता रहा....

बढ़ा.. तो गिरा.. फिर संभला फिर बढ़ पड़ा ...
इस तरह मंजिले मिली.. और मैं जीता रहा

बारेमुश्किले जो कभी नामुमकिन ये सफ़र लगा
कदम कदम बढ़ता रहा .. और मैं जीता रहा....

साँसे धडकनों नब्जो को वो जिंदगी कह लेते हैं...
मैं जीने की खातिर मरा... और मैं जीता रहा...

हालात कभी.. तो.. कभी खुद को ही बदल लिया....
"आलोक " झुका कभी.. तना कभी... और मैं जीता रहा...


...आलोक mehta ...

टिप्पणियाँ

  1. बारेमुश्किले जो कभी नामुमकिन ये सफ़र लगा
    कदम कदम बढ़ता रहा .. और मैं जीता रहा....
    bahut hi badhiyaa .... vatvriksh ke liye apni is rachna ko bhejiye rasprabha@gmail.com per parichay tasweer blog link ke saath

    जवाब देंहटाएं
  2. utsaah wardhan k liye behad shukriya.. Rashmi Prabhaji...

    evam rachna ko 'Vatvriksh" hetu bhejne ke aamntran k liye aabhar sweekar kare.. main jarur bhejunga apni rachna apke diye gaye e-mail address par...

    Shukriyaa...

    जवाब देंहटाएं

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