क्षितिज पे भी जमी का ये फलक न हो सका...
तुझे क्यों रहा गुमान
कि तेरा हो सकूँगा मैं...
अपना ही जब मैं
अब तलक न हो सका
मरासिम हैं ये फकत,
बात जान ले...
क्षितिज पे भी जमी का
ये फलक न हो सका...
कहा था तुझे..
कि ये मुमकिन ही नहीं
रखू किसी का ख्याल
फितरत में शामिल ही नहीं...
लाख चाहू तो भी तो ये
नहीं मेरे बस में...
नादानी जिसे कहते
मोहब्बत.
मेरी मंजिल ही नहीं...
...आलोक मेहता...
कि तेरा हो सकूँगा मैं...
अपना ही जब मैं
अब तलक न हो सका
मरासिम हैं ये फकत,
बात जान ले...
क्षितिज पे भी जमी का
ये फलक न हो सका...
कहा था तुझे..
कि ये मुमकिन ही नहीं
रखू किसी का ख्याल
फितरत में शामिल ही नहीं...
लाख चाहू तो भी तो ये
नहीं मेरे बस में...
नादानी जिसे कहते
मोहब्बत.
मेरी मंजिल ही नहीं...
...आलोक मेहता...
कहा था तुझे..
जवाब देंहटाएंकि ये मुमकिन ही नहीं
रखू किसी का ख्याल
फितरत में शामिल ही नहीं...
bahut hi sahaj bhawabhivyakti
shukriya Rashmi prabha ji..
जवाब देंहटाएंBAHUT KHOOB
जवाब देंहटाएंshukriya sonal ji....
जवाब देंहटाएं