"आलोक" तय हर बार मंजिले... कर जाते हैं...


























क्या कहते हैं... हम.. क्या कर जाते हैं...
झूठी शान को उनसे भी लड़ जाते हैं...

उठने की चाहत में यार आसमा सा...
कितना गहरे हम गिर जाते हैं...

जुडी रहती हैं सिर्फ उन्ही से आस अपनी
कौल से अपने सिर्फ वही मुकर जाते हैं...

किस तरह इन्तहा ये सफ़र-ऐ-उल्फत हो..
पहलू में उनके चलो अब बिखर जाते हैं...

"आलोक" हर बार सुनते है सफ़र मुमकिन नहीं...
"आलोक" तय हर बार मंजिले... कर जाते हैं...

आलोक मेहता...

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