प्रेम मोबाइल हैं अब.. ये दौर देखते हैं...

ऐ दिल चल .. कोई ठौर देखते हैं....
ठिकाना अपना कोई और देखते हैं...

वही होते हैं अक्सर खयालो में अपने...
जिंदगी का जिनको सिरमौर देखते हैं...

नज़ारे जन्नत के या मुफलिसी के हो..
खुशनुमा निगाहों से हर ओर देखते हैं...

आँखों में कटती हैं अब रातें अपनी...
उनसे कोई होगी.. वो भोर देखते हैं...

लोग दोगले.. रंगे हाथ जिनके हैं...
हर शख्स- हर सू ... वही चोर देखते हैं...

चिट्ठी-प्रेम पत्री का चलन ढल गया
प्रेम मोबाइल हैं अब.. ये दौर देखते हैं...

किसी दौर कभी न मिलके भी कभी रोज करीब थे...
आलोक अब रोज मिल के दूरियों का शोर देखते हैं...

...आलोक मेहता...

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