बैठे बैठे... फल पाऊंगा .. अमां क्या कहती हो...
मैं ही बदल जाऊँगा... अमां क्या कहती हो ...
नए रंग ढल जाऊंगा.. अमां क्या कहती हो.....
खुद से मिलते तो.. बनता नहीं कभी...
उससे मिलने कल जाऊंगा... अमां क्या कहती हो...
उसकी थी आरजू.. जूनून भी था? क्या कभी?
बैठे बैठे... फल पाऊंगा .. अमां क्या कहती हो...
शाम का चूल्हा जलाता हैं यूँ भी हर रोज मुझे...
धूप से मैं जल जाऊंगा.. अमां क्या कहती हो...
कई बरस गुजरे.. मेरा सावन यूँ ही पुरजोर हैं....
इस रिमझिम से गल जाऊंगा..अमां क्या कहती हो...
गोया एक तनहा ही तो नहीं मैं रंज-ओ-ग़म का मारा....
फिर मैं ही ऐसे मर जाऊंगा... अमां क्या कहती हो...
आलोक मेहता...
आज भी अम्मा ...
जवाब देंहटाएंबाट जोहती हैं उस रस्ते कि
जिस से ,उसका लाडला गया था ,
चूल्हा आज भी जलता हैं ,
बुझ जाने को
पर रोटियां नहीं सिकती
अपने अकेले के लिए ,
मन से दुआ आज भी
निकलती हैं ...
हाथ अब भी उठते हैं आशीष के लिए
पर वो सर नहीं दिखता |.....अनु
behad khubsurat panktiya Anu ji....
हटाएंBahut hi Sundar, Aakho mai pani aa gaya.
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंBehad Shukriya Ravikar ji... :)
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है....!!
जवाब देंहटाएंSarhana k liye behad shukriya Nidhi ji... :)
हटाएंगोया एक तनहा ही तो नहीं मैं रंज-ओ-ग़म का मारा....
जवाब देंहटाएंफिर मैं ही ऐसे मर जाऊंगा... अमां क्या कहती हो...अमां जो भी कहा अच्छा कहा
बेहद शुक्रिया.. रश्मि प्रभा जी...
हटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने ... !!
जवाब देंहटाएंबेहद शुर्किया.. क्षितिजा जी....
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