क्या हैं कि झूठ में अपना कोई स्वाद नहीं होता...
सच के साथ रखना जरा झूठ का भी हिस्सा...
खालिस सच किसी से अब बर्दाश्त नहीं होता....
जब भी गुजरा हूँ मैं तेरी यादो से होकर....
ख्याल यही आया..ये गुजरना काश नहीं होता....
चाशनी लहजे की अब जुबाँ में बसा सब रखते हैं....
क्या हैं कि झूठ में अपना कोई स्वाद नहीं होता....
आलोक मेहता...
खालिस सच किसी से अब बर्दाश्त नहीं होता....
जब भी गुजरा हूँ मैं तेरी यादो से होकर....
ख्याल यही आया..ये गुजरना काश नहीं होता....
चाशनी लहजे की अब जुबाँ में बसा सब रखते हैं....
क्या हैं कि झूठ में अपना कोई स्वाद नहीं होता....
आलोक मेहता...
झूठ जो बोले... कोई, तो... संग चाशनी... लहजे की रखे....
जवाब देंहटाएंक्या हैं कि... झूठ का अपना कभी कोई स्वाद नहीं होता..
आलोक मेहता...
खालिस सच किसी से अब बर्दाश्त नहीं होता
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ।
आभार ।।
behad shukriya Ravikar ji...
हटाएंसराहनीय रचना...बधाई
जवाब देंहटाएंनीरज
sarahana ke liye behad shukirya neeraj ji...
हटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंकमाल के शेर आलोक जी...
बधाई.
अनु
बेहद शुक्रिया अनु जी...
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